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11.11.09

अगर राज को हिन्‍दी से दिक्‍कत है मराठी को देवनागरी में लिखना बंद कर दें

अगर राज को हिन्‍दी से दिक्‍कत है मराठी को देवनागरी में लिखना बंद कर दें

महाराष्‍ट्र विधानसभा में हिन्‍दी में शपथ ले रहे अबू आजमी की सोमवार को राज ठाकरे की ठस महानगर सेना के विधायकों ने पिटाई कर मराठी की इज्‍जत को शर्मशार कर दिया है। शायद़ राज ठाकरे भूल गए की मराठी की मूल लिपि वही देवनागरी है जिसमें कि हिन्‍दी लिखी जाती है। हिन्‍दी और मराठी दोनो का मूल देवनागरी है। एक माता की दो संतानें। पर राज को कहां इतनी फुर्सत की भाषा का इतिहास पढें। वे मराठी में जो भी लिखते है वह हिन्‍दी जैसा ही होता है। अगर उन्‍हें हिन्‍दी से इतनी ही दिक्‍कत है तो मराठी को देवनागरी में लिख्‍ना बंद कर नई लिपि खोज लें।सारी दुनिया ग्लोबल विलेज की अवधारणा की ओर बढ़ रही है। ऐसे में मुम्बईया ठाकरे के ठस दिमागों में प्रान्तवाद और भाषावाद का का जिन्न जाग रहा है। मुम्बई और महाराष्‍ट्र में मराठी बोलना गर्व का विषय है पर पर हिन्‍दी बोलना उससे भी अधिक गर्व का विषय होना चाहिए। कारण उपर साफ है।न तेरी न मेरी मुम्‍बई मेहनत करने वालों कीक्या मुम्बई मराठियों की है तो सवाल हां हो सकता है लेकिन जब सवाल यह हो कि क्या मुम्बई सिर्फ मराठियों की है तो जवाब हर हाल में ना ही होगा। मुम्बई के विकास में मराठियों के अलावा गुजरातियों, मारवाड़ियों, यूपी बिहार के भैय्याओं के साथ-साथ सारे देश के लोगों का हाथ। निसंदेह मुम्बई के विकास में मराठियों का योगदान है पर जब हम उसकी तुलना प्रांतवाद के आधार पर दूसरे प्रांत से आए लोगों से करते हैं (जो कि नहीं की जानी चाहिए) तो पता चलता है कि उनका योगदान अन्य लोगों की तुलना में काफी कम है। दरअसल मध्यमवर्गीय और नौकरी पेशा वाली मानसिकता के कारण अधिकांश मराठी लोग मध्यमवर्गीय ही बनकर रह गए है। दूसरी ओर अन्य प्रांतो से आए लोगों ने छोटे मोटे बिजनेस किए, एक कमरे में परिवार के साथ रहे, मुफलिसी में भी दिन बिताए, फुटपाथों पर भी सोए, खाली बड़ा पाव खाकर भी महीनों निकाल दिए। इसी संघर्ष की बदौतल लाखों लोगों के दिन फिर गए। कोई धीरूभाई अंबानी बन गया तो कोई अमिताभ बच्चन, कोई पृथ्वीराज कपूर बना तो कोई शाहरूख खान। ऐसे लाखों उत्तर भारतीय या महाराष्ट्र के बाहर के लोगों कि किस्मत मुम्बई ने बदली है। ऐसे लोग मुम्बादेवी की इस पावन धरा को सलाम करते हैं लेकिन मुम्बई की जमीन पर गिरे उनके पसीने की बूदों और संघर्ष की रेखाओं को हम शायद भूल गए है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि मुम्बई की धरती की खासियत है जो उस पर अपने पसीने की बूंदे गिराता है और संघर्ष की रेखाएं मुम्बई के भाल पर खींचता है उसे वह सिर माथे बैठाती है। फिर वह उत्तर भारतीय हो या मराठी। दरअसल मुम्बई है उन मुम्बईकरों की जो मुम्बई को अपनी मेहनत से सीचते हैं, उसके लिए जीते हैं और मरते हैं, फिर वह मराठी हो या उत्तरभारतीय, बंगाली बंधु हो गुजराती भाई। तो फिर मुम्बई और महाराष्ट्र को ठाकरे के ठसपने के लिए क्यों जलना चाहिए।राज ठाकरे से एक सवाल अगर सारे देश के लोग शेयर मार्केट में पैसा लगाना बंद कर दें या शेयर मार्केट को कहीं और शिफ्ट कर दिया जाए तो मुम्बई कितनी मुम्बई रहेगी।
मुम्बई किसकी: एक नजर में
व्यापार गुजरातियों के हाथ में : 1950 में सौराष्ट्र को छोड़कर पूरा गुजरात मुम्बई स्टेट का हिस्सा था, लिहाजा मुम्बई में छोटा-मोटा नहीं बहुत बड़ा गुजरात बसता है। सार बिजनेस उन्ही के हाथों में है। मुम्बई की तीन लोकसभा, 15 विधानसभा क्षेत्रों, शेयर मार्केट और व्यापार में गुजरातियों का बोलबाला है।
शेअर मार्केट : शेयर मार्केट में लगने वाला 90 प्रतिशत पैसा महाराष्ट्र के बाहर का होता है। शेयर मार्केट में गुजरातियों का बोलबाला है। बिजनेस में भी मारवाड़ियों के साथ गुजरातियों की तूती बोलती है।
कारपोरेट जगत में देश भर की धूम: देश की अधिकतर बड़ी प्राइवेट कंपनियों से मुख्यालय मुम्बई में है। वहा काम करने वाले अधिकत लोग देश के विभिन्न प्रांतों के हैं।
फिल्मी दुनिया उत्तर के कब्जे में : पंजाब, दिल्ली, यूपी, बिहार और मध्यपद्रेश के लोगों ने फिल्मी दुनिया में नाम कमाया। पृथ्वीराज कपूर से अनिल कपूर तक, अमिताभ से शत्रुघन्न सिन्हा और शाहरूख खान से राजपाल यादव, सलीम खान से सलमान खान, गुलजार से तक सभी उत्तर भारतीय है। फिल्मी दुनिया में काम करने वाले, स्ट्रगल करने वाले यादातर लोग उत्तर भारत के ही होते हैं।
छोटे मोटे कामों में भैय्याओं का बोलबाला : टैक्सी ड्रायवरी, दूध, सब्जी, चाय,बड़ापाव, गुमटी के छोटे मोटे बिजनसे हााम, धोबी, मिस्त्री और मजदूरी जैसे कामों उत्तर भारतीयों खासकर यूपी और बिहार के लोगोंने अपनी घाक जमा ली।इसके पीछे सामाजिक और आर्थिक कारण यादा जवाबदार हैं। यूपी और बिहार में देश की कुल आबादी के लगभग 19 प्रतिशत लोग रहते हैं। रोजगार की तलाश और गरीबी से निजात पाने के लिए यूपी और बिहार के लोग हर प्रांत में फैले मिल जाएंगे। जैसे जैसे मुम्बई का आकार बढ़ता गया सेवा और मजदूरी के लिए लोगों की जरूरत बढ़ती गई। कारण कि आम मराठी पढा लिखा होने की वजह से आज से 25 साल पहले छोटे-मोटे कामों के बजाय नौकरी को प्राथमिकता देता आया था। लिहाजा मुम्बई में मौजूद कुछ भैय्याओं ने अपने नजदीकी लोगों को मुम्बई में लाना शुरु किया और देखते ही देखते पिछले तीन चार दशक में मुम्बई के सेवा और फुटपाथी बिजनेस में भैय्याओं का बोलबाला हो गया।
चलते-चलते : भाई गिरी में भी मराठी पीछे है। दाउद, छोटाशकील---------------------------

5 comments:

KK Mishra of Manhan said...

बहुत खूब ! विचारणीय!

prashant said...

सही कहा आपने

Unknown said...

बिलकुल सही कहा आपने |

RAJNISH PARIHAR said...

दरअसल में राज ठाकरे को हिंदी से नहीं अपनी राजनीती से मतलब है!तभी तो हिंदी फिल्म इंडस्ट्री से उन्हें तकलीफ नहीं है,जहाँ लाखों मराठी मनोयोग से काम कर रहे है...

Creative Manch said...

विचारणीय लेख
बिलकुल सही कहा आपने |
आपसे पूरी तरह सहमत हूँ !
आभार


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